बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के तहत बड़े पैमाने पर नाम हटाए जाने का मुद्दा पिछले कुछ समय से चर्चा में है। इस प्रक्रिया ने न केवल राजनीतिक दलों, बल्कि आम मतदाताओं के बीच भी चिंता पैदा की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करते हुए 22 अगस्त 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें चुनाव आयोग को आधार कार्ड को वैध पहचान पत्र के रूप में स्वीकार करने और हटाए गए मतदाताओं की सूची को पारदर्शी तरीके से सार्वजनिक करने का निर्देश दिया। कांग्रेस पार्टी ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे लोकतंत्र की जीत करार दिया है।

बिहार मतदाता सूची विवाद
बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 से पहले मतदाता सूची को अपडेट करने के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया शुरू की गई थी। इस प्रक्रिया के तहत लगभग 65 लाख मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट सूची से हटाए गए, जिसने विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों में हलचल मचा दी। विपक्ष ने आरोप लगाया कि यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और कई वास्तविक मतदाताओं के नाम बिना उचित सत्यापन के हटाए गए हैं।
चुनाव आयोग ने दावा किया कि नाम हटाने का उद्देश्य मतदाता सूची को सटीक और पारदर्शी बनाना है। आयोग के अनुसार, हटाए गए नामों में मृतक, स्थानांतरित, और डुप्लिकेट मतदाता शामिल हैं। हालांकि, विपक्षी दलों ने इसे मतदाताओं के अधिकारों पर हमला बताया और सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई सुनवाइयों के बाद 22 अगस्त 2025 को एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया। कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश दिए:
- आधार कार्ड को वैध दस्तावेज मानना अनिवार्य: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जिन मतदाताओं के नाम सूची से हटाए गए हैं, वे आधार कार्ड को पहचान पत्र के रूप में प्रस्तुत कर अपने नाम को पुनः शामिल करने का दावा कर सकते हैं। यह आदेश 14 अगस्त 2025 को दिए गए निर्देश का पुनरावलोकन था, जिसमें कोर्ट ने आधार के साथ 11 अन्य दस्तावेजों को स्वीकार करने की बात कही थी।
- हटाए गए नामों की सूची सार्वजनिक करें: सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि 65 लाख हटाए गए मतदाताओं की बूथ-वार सूची, उनके नाम हटाने के कारणों सहित, जिला निर्वाचन अधिकारी की वेबसाइट पर प्रकाशित की जाए। इसके साथ ही, इस जानकारी को स्थानीय समाचार पत्रों, दूरदर्शन, रेडियो, और अन्य माध्यमों से व्यापक प्रचार करने का आदेश दिया गया।
- राजनीतिक दलों की भूमिका: कोर्ट ने बिहार की 12 मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियों को निर्देश दिया कि वे अपने बूथ लेवल एजेंट्स (बीएलए) के माध्यम से मतदाताओं की मदद करें। कोर्ट ने इस बात पर नाराजगी जताई कि 1.6 लाख बीएलए होने के बावजूद, पार्टियों ने इस प्रक्रिया में बहुत कम आपत्तियां दर्ज की हैं।
- पारदर्शी और मतदाता-अनुकूल प्रक्रिया: कोर्ट ने कहा कि मतदाता सूची में सुधार की प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी और मतदाता-अनुकूल बनाया जाए। मतदाताओं को ऑनलाइन और ऑफलाइन दावे और आपत्तियां दर्ज करने की सुविधा दी जाए, ताकि उन्हें बिहार आने की जरूरत न पड़े।

कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर राजनीतिक दल यह दावा करते हैं कि चुनाव आयोग उन्हें आपत्तियां दर्ज करने से रोक रहा है, तो अब उनके पास मौका है कि वे मतदाताओं की मदद के लिए आगे आएं।
कांग्रेस की प्रतिक्रिया: लोकतंत्र की जीत
कांग्रेस पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक और लोकतंत्र को बचाने वाला कदम बताया। पार्टी ने एक बयान में कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने आज लोकतंत्र को एक बड़े खतरे से बचाया है। चुनाव आयोग की अब तक की कार्यप्रणाली मतदाताओं के अधिकारों के खिलाफ थी और इसने कई बाधाएं खड़ी की थीं। लेकिन कोर्ट के इस फैसले ने न केवल पारदर्शिता सुनिश्चित की है, बल्कि राजनीतिक दलों को इस प्रक्रिया में शामिल करने का रास्ता भी खोला है।”
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि यह फैसला मतदाताओं को एक मजबूत अधिकार देता है, जिसे अब चुनाव आयोग अनदेखा नहीं कर सकता। पार्टी ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह कदम बिहार के मतदाताओं के लिए एक बड़ी राहत है, जो अपनी पहचान और मताधिकार को लेकर चिंतित थे।
मतदाताओं के लिए राहत, लेकिन चुनौतियां बरकरार
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से बिहार के लाखों मतदाताओं को राहत मिलने की उम्मीद है। आधार कार्ड को वैध दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने का निर्देश उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जिनके पास अन्य दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां आधार कार्ड सबसे सुलभ दस्तावेज है, यह फैसला मतदाताओं को अपने अधिकारों की रक्षा करने में सहायता देगा।
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हालांकि, कुछ चुनौतियां अभी भी बाकी हैं। विपक्षी दलों ने दावा किया है कि एसआईआर प्रक्रिया में कई खामियां हैं, जैसे कि जीवित लोगों को मृत घोषित करना या प्रवासी मजदूरों के नाम हटाना, जो बिहार से बाहर रहते हैं। इसके अलावा, बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदाओं ने कई लोगों को दावे और आपत्तियां दर्ज करने से रोका है।
सरकार और चुनाव आयोग की जिम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग और बिहार सरकार से इस प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी और समावेशी बनाने की अपेक्षा की है। कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि जब बिहार में 1.6 लाख बूथ लेवल एजेंट्स हैं, तो आपत्तियां दर्ज करने में इतनी कमी क्यों है। आयोग ने बताया कि 2.63 लाख नए मतदाताओं ने 1 अगस्त के बाद पंजीकरण के लिए आवेदन किया है, जो यह दर्शाता है कि मतदाता राजनीतिक दलों से ज्यादा जागरूक हैं।
चुनाव आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि हटाए गए 65 लाख नामों में से 22 लाख मृतक और 8 लाख डुप्लिकेट हैं। शेष 35 लाख लोगों के दावों की जांच की जाएगी, बशर्ते वे उचित दस्तावेज प्रस्तुत करें।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बिहार में मतदाता सूची विवाद को हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। आधार कार्ड को वैध दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने और हटाए गए नामों की सूची को सार्वजनिक करने का निर्देश न केवल पारदर्शिता लाएगा, बल्कि मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा भी करेगा। कांग्रेस ने इस फैसले को लोकतंत्र की जीत बताया है, और यह निश्चित रूप से बिहार के मतदाताओं के लिए एक राहत की खबर है। हालांकि, इस प्रक्रिया को पूरी तरह से लागू करने और सभी पात्र मतदाताओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को मिलकर काम करना होगा। यह फैसला न केवल बिहार, बल्कि देश के अन्य हिस्सों के लिए भी एक मिसाल कायम कर सकता है।
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